Title | : | कुरु-कुरु स्वाहा... |
Author | : | |
Rating | : | |
ISBN | : | 8126708956 |
ISBN-10 | : | 9788126708956 |
Language | : | Hindi |
Format Type | : | Paperback |
Number of Pages | : | 207 |
Publication | : | First published January 1, 1980 |
कुरु-कुरु स्वाहा... Reviews
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लेखक इस उपन्यास का परिचय देते हुए इसी के एक पात्र के शब्दों को उद्धृत करते हैं: "एइसा कॉमेडी कि दर्शिक लोग जानेगा, केतना हास्यपद है त्रास अउर केतना त्रासद है हास्य।"
मुझे तो त्रासद ही लगी; संभवत हास्य त्रासदी का आवरण होता है।
उपन्यास के नायक का नाम और लेखक का नाम एक ही है, लेकिन लेखक ने कहा है कि यह कल्पित पात्र है। नायक के भीतर तीन तरह के पात्र हैं, कुछ इस तरह जैसे हमसब भी हर परिस्थिति को अपने भीतर मौजूद कई दृष्टियों से देखते हैं।
कहानी में ढेर सारे रिफरेन्स, ढेर सारी वर्ल्ड फेम कृतियाँ और श्लोको का ज़िक्र हुआ है जो मुझ मूढ़ के ऊपर से निकल गए। समझ लायक चीजों को समेटते हुए कहानी के साथ आगे बढ़ा।
नायक के भीतर जो तीन तरह के पात्र हैं उनमें से एक इस कहानी को सुना रहे हैं। एक इंटेलेक्चुअल और well read पत्रकार/लेखक महोदय वेश्याओं के जीवन पर कुछ खोजबीन कर रहे हैं और वहीँ उनका परिचय इस कहानी की रहस्यमयी नायिका 'पहुंचेली' के साथ होता है। नायिका, जिसका shade ग्रे है, से परिचय होता है कहना सही नहीं होगा। उसी का परिचय पाने के लिए दुनिया जहान की किताबें बांच कर खुद को इंटेलेक्चुअल समझने वाले जोशी जी इधर-उधर पटखनी खाते रहते हैं और उनकी इन पटखनियों के साथ पाठक फ़िल्मी जगत के स्ट्रगल और थोडा बहुत क्राइम जगत वालों का दर्शन करता हुआ हास्यमय त्रासद को देखता है और संभवतः त्रासद को प्राप्त होता है क्योंकि पुस्तक थोड़ी घुमावदार यानि confusing है और उतनी इंटरेस्टिंग भी नहीं। -
कुरु – कुरु स्वाहा… को पढ़ना एक श्रमसाध्य काम हैं| जिसमें आप कथानक के साथ जुड़ते हुए भी उससे दूर रहते हैं| उपन्यास मुंबई की एक कहानी को बारीकी, बेबाकी और बेगैरत तरीके के साथ पूरी साहित्यिकता, नाटकीयता, और सांस्कृतिकता के साथ कहता है| मनोहर श्याम जोशी से यह मेरा पहला परिचय है| मैंने कभी उनके हमलोग, बुनियाद या कोई और धारावाहिक भी नहीं देखा| जिस वक्त मेरे सहपाठी मुंगेरीलाल के हसीं सपने देखते थे मैं अपने अन्दर कोई मुंगेरीलाल पाले बैठा था| मगर कुरु – कुरु स्वाहा… पढ़ने से मुझे यह स्पष्ट हो गया कि मनोहर श्याम जोशी जीवन के हर फ्रेम को थ्री डी चश्मे से नहीं देखते वरन दस दिशाओं से अवलोकते हैं| उनके पास हर फ्रेम का बहुआयामी मॉडल रचने का माद्दा है|
जैसा कि उपन्यास के बारे में अंतिम पृष्ठ पर लिखा गया है, “एइसा कॉमेडी कि दार्शिक लोग जानेगा, केतना हास्यास्पद है त्रास अउर केतना त्रासद है हास्य”| मगर मैं सावधान हूँ, यह परिचय शायद मनोहर श्याम जोशी ने खुद लिखा है और अपने उपन्यास को स्वाहा करने के उनकी साजिश का हिस्सा मात्र है| कुरु- कुरु स्वाहा पढ़ते समय पाठक को अपने न होने का काम्प्लेक्स होने लगता है और पढ़ते हुए अपनी क्षुद्रता पर भी गर्व सा कुछ होता है कि पाठक इसे पढ़ पा रहा है| बहुत से विवरणों को पाठक पढने के साथ नकारता या छोड़ता चलता है और उसे अपनी तमाम क्षुद्रता के मार्फ़त पढ़ता समझता चला जाता है| कुरु – कुरु स्वाहा… खुद को स्वाहा करने से पहले अपने लेखक, अपने नायक और फिर पाठक को स्वाहा करता चलता है|
कुरु – कुरु स्वाहा… में कथानक है यह तो समझ में आता है मगर कई बार आप रुक कर कथानक को ढूंढने लगते है| कई बार लगता है कि कई कथानक है तो कई बार आप उन कथानकों के से आप उपन्यास का एक कथानक ढूंढने लगते हैं| कुरु – कुरु स्वाहा… को पढ़ना अपने जीवन के उन पहलुओं को पढ़ना हैं जिन्हें हम अपने आप में होते हुए नकारते चलते हैं| कुरु – कुरु का कुरु – कुरु वही है जो हम जीवन में घटित होते हुए नकार दिया जाता है या कि स्वीकार नहीं किया जाता| कथानायक अपनी उन उबासियों में जो हैं हीं नहीं, जीवन के उन्हीं पहलूओं को जीता चला जाता हैं|
अब जैसा की उप्पन्यास कहता है, यह पाठक पर है कि इस ‘बकवास’ को ‘एब्सर्ड’ का पर्याय माने या न माने| -
The writer himself is the protagonist of this engaging novel who has two characters to play in his life. One is the publicly known image of writer and intellectual Joshi ji and the other one of a young man with all his worldly desires. The novel is set in the magical city of Bombay (not Mumbai) with Pahuncheli, a woman outside the reach of the common man Joshi. As the writer himself acknowledges that there is no story as such in the novel despite there being so many story lines running parallel throughout. A good readable work from a eminent satirist and writer Manohar Shyam Joshi.